कुमाऊँ

ईजा के मुख से सुनते थे कभी ये कथा


नीमा पाठक

एक गरीब ब्राह्मण अपनी कन्या के विवाह के लिए बहुत चिंतित था पर कोई उपयुक्त वर ढूंढ पाने में वह असफल रहा. कन्या बड़ी होते जा रही थी लोगों से ताने मिल रहे थे दुखी होकर ब्राह्मण और उसकी पत्नी ने तय किया कि कल सुबह जो भी सबसे पहले हमारे द्वार पर आएगा उसी से अपनी बेटी की शादी कर देंगे.

सुबह सुबह जब ब्राह्मणी उठ कर बाहर आई तो दरवाजे पर सांप था, उसे देख कर वह आश्चर्य में पड़ गई और उसने अपने पति को बुलाकर सांप दिखाया तो उसे अपनी कल की गई प्रतिज्ञा याद आ गई. दोनों पति पत्नी मन ही मन बहुत दुखी हुए पर अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उन्हें अपनी बेटी का ब्याह सांप से करना पड़ा.

विदाई के समय मां ने बेटी के आंचल में सरसों रख दी और कहा, तू जहां भी जाए सरसों गिराती जाना ताकि हम सरसों के पौंधों को देख कर तुमसे मिलने आ सकें. आगे आगे सांप उसके पीछे बेटी चलती गई आखिर में सांप एक विशाल महल के अंदर जाकर राजकुमार के रूप में बदल जाता है. महल धनधान्य और ऐश्वर्य से पूर्ण था, भाग्य की धनी, गरीब कन्या महल में राज करने लगी.

कुछ समय बाद ब्राह्मण और उसकी पत्नी को बेटी से मिलने की इच्छा हुई तो जिस मार्ग में सरसों उगी थी उसी  मार्ग पर चलते चलते वे अपनी बेटी के महल में पहुंच जाते हैं. दोनों बेटी की सम्पन्नता को देख कर खूब खुश होते हैं. महल में कई भंडार घर थे दोनों उस में रखी संपत्ति को देखने के लिए उनको खुलवाते हैं. पहले कक्ष में चांदी के सिक्के देख कर वह अपना एक थैला भर लेते हैं, फिर दूसरा कक्ष खुलवाते हैं जिसमे सोने के सिक्के होते हैं, वे चांदी के सिक्के छोड़ सोना बटोर लेते हैं, तीसरा कक्ष हीरों से भरा था अब सोना छोड़ हीरे बटोर लेते हैं. चौथा कक्ष खुलवाने के लिए बेटी मना करती है पर वे जिद कर खुलवा ही लेते हैं उसमें कुछ लोगों को गिद्ध नोच रहे होते हैं जिसे देख कर उनके होश उड़ जाते हैं. वे अपनी बेटी से पूछते हैं, बेटी ये कौन हैं. बेटी बोली, ये विवाहिता बेटी के धन के लालची लोग हैं. बेटी की बात सुनकर दोनों को अपने पर शर्मिंदगी होती है और अपनी बेटी से माफी मांग कर खाली हाथ घर लौट आते हैं।

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