प्रभु तेरी इस भूल भुलैया में,
मानव पथ को खोज रहा।
धन दौलत रूतबा से देखो,
मन की शांति खोज रहा।
चंद कागज के टुकड़े लेकर,
मानव इंसान को मोल रहा।
कोई दर दर अमृत खोज रहा,
कोई स्वार्थ में बिष भी घोल रहा।
अन्तःकरण में छुपा बैठा जो,
उसे ढूंढता दर दर रोज रहा।…
प्रभु तेरी इस भूल भुलैया में,
मानव पथ को खोज रहा।…
तृष्णा है स्वंयभू बनने की ही,
नित मानवता को नोच रहा।
झूठ फरेब से स्वंय की गागर,
कैसे भरूं नित नित सोच रहा।
देखो अनंत संपदा की ओढ़े चादर।
फिर भी चैन नींद की खोज रहा।
कोई बांट रहा खुशियां जग में,
कोई आसूं किसी के पोछ रहा।
प्रभु तेरी इस भूल भुलैया में,
मानव पथ को खोज रहा।….
रचनाकार- भुवन बिष्ट
मौना,रानीखेत (उत्तराखंड)