नैनीताल। वर्षा ऋतु के समाप्ति तथा शरद ऋतु के प्रारंभ में यानी आश्विन माह के प्रथम दिन कन्या संक्रांति को मनाया जाने वाला खतड़वा पर्व रविवार को नगर सहित आस पास के ग्रामीण क्षेत्रो में धूमधाम से मनाया गया।आगे पढ़ें
खतडवे के लिए शाखाओं वाले वृक्ष को जंगल से काटकर लाया जाता हैं और वहां पर गाड़ देते हैं, तथा उस वृक्ष में घास, फूस व पिरोल तथा लकड़ियों एक साथ बांध कर उसे एक पुतले का रूप दिया जाता हैं। जिसे खतड़वा कहते हैं। सुर्यास्त के बाद खतडवे को जला दिया जाता है। इस अवसर पर लोक गीत “ओ लट्या भूल गै लुत्तो ल्हैजा भैल्लो जी भैल्लो” मतलब गाय की जीत खतडंवा की हार होता है।जिसके बाद खतड़वे की राख को एक दूसरे के माथे पर व पशुओं के माथे पर लगाई जाती है। ऐसा माना जाता है कि इस जलते हुए खतड़वे के साथ-साथ पशुओं के सारे रोग व अनिष्ट भी इसी के साथ खत्म हो जाते है।जिसके बाद इस दौरान पर्वती क्षेत्रो में बहुत अधिक मात्रा में होने वाली ककड़ी खीरे को काटकर प्रसाद स्वरूप वितरण किया जाता है।आगे पढ़ें
खतड़ुआ शब्द की उत्पत्ति खातड़ या रजाई व गरम कपड़े है। गौरतलब है कि भाद्रपद की शुरुआत सितम्बर मध्य अधिकतर 17 सितंबर से पहाड़ों में ठंड धीरे-धीरे शुरु हो जाती है। यही वक्त है जब पहाड़ के लोग पिछली गर्मियों के बाद प्रयोग में नहीं लाये गये कपड़ों को निकाल कर धूप में सुखाते हैं और पहनना शुरू करते हैं. इस तरह यह लोक पर्व वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद शीत ऋतु के आगमन का प्रतीक भी है।आगे पढ़ें
मान्यताओं के अनुसार इस लोकपर्व को एक विजयोत्सव पर्व भी मनाते हैं ।कहा जाता है कि कुमाऊनी सेना के गैडा़ सिंह ने गढ़वाली सेना के अपने प्रतिद्वंदी खतड़ सिंह को पराजित कर गढ़वाली सेना को पीछे हटने को मजबूर कर दिया था और इसी दिन उसने खतर सिंह पर विजय पाई थी। इसीलिए इस त्यौहार को विजयोत्सव के रूप में भी मनाया जाता है।