वो बिल्कुल ऐसे गढ़ जाती है,जैसे वो पूरी अनपढ़ हो,जो जानती भी न हो दुःख जैसे वो कोई सुखनवर हो।।जिसके अहसास जिंदा है,कहीं मेरे आस-पास भटकते,जिसकी छुअन से शब्द भी भाव की भांति लगते।।वो बिल्कुल ऐसे दिखलाती है,जैसे वो मोम नहीं,लौह हो.!वो जाने कैसे सुलझा लेती है,मेरे भीतर ऊहापोह को।।जो खुद अनपढ़ सी गढ़ जाती है,पागल सी बन जाती है।वो कोई कविता बन सिरहाने मुस्कुराती है।मां ऐसा कैसे कर लेती है, मां ऐसा कैसे कर लेती है।।
कविता:मां ऐसा कैसे कर लेती है:कवियत्री सुहानी जोशी
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