धर्म-संस्कृति

कुमाऊँ पारंपरिक वैवाहिक रस्मों में संदेशवाहक(मुसकलों) की होती है अहम भूमिका 


भुवन बिष्ट,रानीखेत (अल्मोड़ा), उत्तराखंड
रानीखेत। देवभूमि उत्तराखंड जहाँ एक ओर अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विश्व विख्यात है वहीं इसकी संस्कृति सभ्यता और परंपराओं का सदैव ही गुणगान होता है। महामारी कोरोना से उत्पन्न विषम परिस्थितियों ने अनेक उत्सवों विवाह समारोहों को प्रभावित कर दिया था किन्तु अब स्थिति सामान्य होने पर सभी आयोजन धीरे धीरे धूमधाम से आयोजित होने लगे हैं। हम सभी त्यौहारों वैवाहिक रस्मों परंपराओं को धूमधाम से मनायें किन्तु कोरोना के सुरक्षा उपायों को भी जरूर अपनायें और मानव जीवन बचायें।
आज आधुनिकता की चकाचौंध में बहुत सारी परंपराऐं पीछे छूटते चली जा रहीं हों या अनेक आधुनिकता की दौड़ में इन्हें अपने शान के विपरीत समझते हों, किन्तु इन परंपराओं, संस्कृतियों को संजोनें का कार्य करते हैं देवभूमि उत्तराखंड के गाँव। देवभूमि उत्तराखंड की धड़कन हैं गाँव। देवभूमि उत्तराखंड जिसका कण कण है महान और विश्व जिसका करता है गुणगान। देवभूमि उत्तराखंड की परंपराऐं सदैव महान रही हैं। देवभूमि की संस्कृति सभ्यता व परंपरा सदैव ही विश्वविख्यात रही हैं। लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध में अनेक परंपराऐं विलुप्त हो रही हैं तो अनेक परंपराऐं आज भी अपने स्वरूप विद्यमान हैं। कुछ परंपराऐं जो पारंपरिक वैवाहिक समारोहों में देखने को मिलती हैं। 
पारंपरिक वैवाहिक समारोंहों में ममचोही,मुसकलों की भी अहम भूमिका होती थी। पूर्व में शादियों में अनेक परंपराऐं प्रचलित थी, किन्तु आज ये परंपराएं विलुप्त होती जा रही हैं। पूर्व में शादियों में पारंपरिक वाद्ययंत्रों का विशेष महत्व होता था । इसके साथ ही परंपरा के अनुसार मस्थगोई (संदेशवाहक) अथवा ममचहोई (मुसकलों) का भी अपना एक विशेष स्थान होता था। उस समय गाँव के एक विशेष बुजुर्ग अनुभव वाले व्यक्ति को अथवा गाँव के अनुभवी समझदार व्यक्ति को इस कार्य के लिये चयनित किया जाता था, तथा एक सहायक को ममचहोई या संदेशवाहक बनाया जाता था। ममचहोई (मुसकलों) शादि की तिथि से पहले दिन दुल्हन के घर जाकर बारात आने की सूचना देते थे तथा वहाँ की व्यवस्थाओं के बारे में जानकारी भी लेते थे । इन्हें विशेष रूप से एक पीले कपड़े में जिसे दुनर कहा जाता था एक तरफ उड़द की दाल और दूसरी तरफ गुड़ की भेली की पोटली (दुनर) देकर दुल्हन के घर एक दिन पहले भेजा जाता था । ये कंधे में दुनर तथा हाथ में मिट्टी की बनी शगुनी ठेकी जो दही से भरी होती थी और ऊपर से हरी सब्जियाँ रखी होती थी,लेकर जाते थे और इनके साथ एक शंख बजाने वाला सहायक होता था जो शंख की ध्वनि से अपने आने की सूचना देते थे।
आजकल बारातें भी अधिकांशतः एक दिवसीय हो गयी हैं तो आजकल जहाँ यह रस्म लगभग विलुप्त की ओर हैं तो कहीं कहीं ममचोई संदेशवाहक को बारात से कुछ समय पहले दुल्हन के घर भेजा जाता है। ममचहोई बारातियों की संख्या आदि की जानकारी दुल्हन पक्ष को देते थे और फिर शादि के दिन दूल्हा पक्ष को दुल्हन के घर में हो रही व्यवस्थाओं की जानकारी देते थे। परंतु आज शादियों में आधुनिकता के कारण ममचहोई की भूमिका भी समाप्त होते जा रही है। अब मात्र औपचारिकता के लिए कुछ ही बारातों में देखे जाते हैं।यह परंपरा अब लगभग समाप्त अथवा विलुप्त हो चुकी है।

यह भी पढ़ें 👉  एक देश एक चुनाव केवल ध्यान भटकाने का भाजपाई मुद्दा:नेताप्रतिपक्ष यशपाल आर्य
To Top

You cannot copy content of this page