धर्म-संस्कृति

देवभूमि में दीपोत्सव पर ओखली में बनाये जाते हैं ऐपण


       भुवन बिष्ट, रानीखेत, उत्तराखंड
रानीखेत। देवभूमि उत्तराखंड की पारम्परिक और पौराणिक लोक कला ऐपण का अपना एक विशेष महत्व है। दीपोत्सव पर रंगोली से जहां घरों को सजाया जाता है वहीं ऐपण बनाने की लोककला भी काफी प्रचलित रही है। देवभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं के ग्रामीण अंचलों में शुभ कार्यों में ऐपण बनाने का प्रचलन रहा है। वहीं दीपोत्सव में घरों की स्वच्छता की जाती है उन्हें रंगोली के साथ साथ ऐपण से भी सजाया जाता है। तथा दीपोत्सव पर माता लक्ष्मी के पग चिन्हों को भी इससे ही बनाया जाता है। वैसे आधुनिकता की चकाचौंध में यह परंपरा बमुश्किल जीवंत है। क्योंकि आजकल कम्प्यूटर अथवा मशीन से बने हुए ऐपण आदि ने स्थान ले लिया है जो कागज में बने हुए आते हैं और उन्हें केवल चिपकाना पड़ता है। लेकिन आधुनिकता की चकाचौंध के बीच ग्रामीण अंचलों में आज भी अनेक परंपराएं बनी हुई हैं। दीपोत्सव पर मंदिर,देहरी के साथ साथ ग्रामीण अंचलों में ओखली को भी ऐपण से सजाया जाता है। ग्रामीण जीवन में ओखली,मूसल,सूप का भी अपना एक विशेष स्थान है। मशीनीकरण ने भले ही पांव पसार लिए हों किन्तु इनका उपयोग गांवों में आज भी मूल स्वरूप में किया जाता है। इसलिए ओखली को भी दीपोत्सव पर सजाया जाता है। तथा दीपावली में ग्रामीण अंचलों में माता लक्ष्मी के पग चिन्हों को भी इससे ही बनाया जाता है। इन्हें सुख समृद्धि का कारक माना जाता है। ऐपण बनाने के लिए चावल के विस्वार पीसे हुए चावलों के घोल) तथा गेरू,प्राकृतिक लाल मिट्टी का उपयोग किया जाता है। आजकल इनका स्थान भी रंगों ने लेना शूरू कर दिया है। देवभूमि उत्तराखंड की पारंपरिक लोककलाओं का सदैव अपना एक विशेष स्थान रहा है। परंपराओं को गांव आज भी संरक्षित किये हुए हैं। आधुनिकता की चकाचौंध के बीच परंपराओं एंव संस्कृति को संरक्षित करना भी चुनौतिपूर्ण है।
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आधुनिकता की चकाचौंध के बीच ग्रामीण अंचलों में आज भी अनेक परंपराएं बनी हुई हैं। दीपोत्सव पर मंदिर,देहरी के साथ साथ ग्रामीण अंचलों में ओखली को भी ऐपण से सजाया जाता है। तथा माता लक्ष्मी के पग चिन्हों को भी इससे बनाया जाता है। ग्रामीण जीवन में ओखली,मूसल,सूप का भी अपना एक विशेष स्थान है।

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