मदन मोहन जोशी की रचना
आज में अपने पुश्तैनी मकान को निहार अपना बचपन याद कर रहा हूं. जहां मेरा प्यारा बचपन गुजरा बचपन की यादें यकायक जेहन में तरोताजा महसूस होती रहीं. यह मेरे पुरखों की अमानत है महज मेरा मकान या घर नहीं, यह धरोहर है उनके मान का और मेरे सम्मान का जिसे में हमेशा अपनी कल्पना से संजोया करता हूं।
जब भी मैं अपने बचपन की यादों में खो जाता हूं तो मेरी यादों का झरोखा बना वो मेरे घर का छज्जा, बच्चों की खिलखिलाहट सहित चिड़िया की चूं-चूं करती खुशियो का पिटारा वो पातल का बना आंगन, बुजुर्ग बताते हैं तब की हाड़तोड़ मेहनत कर यह घर तैयार हुआ है. इस घर का एक एक पत्थर आवाज देता जान पड़ता है मेरे मां पिता की आहट की, मेरे यह सपनों का घर आज भी मेरे पुरखों की ओर से आने वाली पीढ़ी के लिये सजाया और गुलशन की तरह महकता महसूस होता रहता है. बचपन की यादों में जाता हूं तो गाय की रंभाने से सुरमयी बना घर, कभी छज्जा तो कभी आंगन और देहरी बीच इठलाती और धमाल मचाती बिल्लियों की धमाचौकड़ी, बाहर दूर अलग करीने से सजा मौन बाक्स में मौन की मडमडाट से गुजांयमान मेरा पुश्तैनी घर की रौनक देखते ही बनती थी।
वो बारिश की बंधार की आवाज को तरसते मेरे कान, ईजा के हाथ के खिरखाजे, छोली रोटी, खजूरे और मास की बेडू पूडी, हियून की ठंडी दोपहरी मे देली में मखमली धूप को महसूस करता मेरा मन, बाबूजी के खनक को महसूस करता. चाख में बैठ गैलशैल फसकों को तरसता मन, यादों के पुलिदे मे वो गल्यूट की मिट्टी की सौधी खुश्बू जिसकी खुश्बुओ को आज भी महसूस करता हूं. ईजा के हाथों से गेरूआ मिट्टी से लिपा एक एक कमरा सहित देहरी और आंगन की तो शोभा देखते ही बनती। वो लिपाई के बाद ऐंपण से सजी देहरी, एक-एक खुटकूड का पत्थर, एक-एक छत का तख्त दरखास्त करता सा जान पड़ता जो इस दौरान पीछे छूट गये. आंगन से एक आवाज सी आती और हृदय मे असंख्य घाव कर जाती, वो खामोशी से सुना पडा घर का आंगन, ईजा के हाथ की दाथूली, ओखली, चक्की, बाबूजी के हाथ के औजार, एक एक सम्भाल कर रखा कील /परेख, जिस बल्ली तख्त पर हाथ जाये कुछ न कुछ सम्भाल कर हमारे लिये रखी अमानते, अनमोल मेरे आँगन की मिट्टी जिस मिट्टी मे मेरे ईजा बाबू की जीवन भर की तपस्या, सब तीर्थो से बढकर वो मेरा पुश्तैनी घर जिसकी एक एक लकडी, पत्थर, खिड़कियां और दरवाजे साकंल,चहा की केतली, रिस्यान मेरे ईजा बाबू के होने का अहसास दिलाते हैं।